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चित्तौड़ का प्रथम शासक ( अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण व रानी पद्मिनी का जौहर)

 सन् 1296 ई. में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के तख्त पर बैठा। 

वह बड़ा महत्वाकांक्षी शी था तथा उसने 'सिकन्दर सानी' (दूसरा सिकन्दर ) की उपाधि भी ग्रहण की थी। इसी उपाधि को सार्थक करने के लिए उसने विजय-यात्रा प्रारम्भ की तथा रणथम्भौर के किले को जीता। तत्पश्चात् उसने चित्तौड़ के किले को आ घेरा। वीर क्षत्रियों ने शत्रु का डट कर मुकाबला किया, किन्तु अन्त में रक्षा का कोई उपाय ने देख, वे केसरिया बाना पहन अपने देश व जाति की मर्यादा की रक्षा के लिए अपनी जान पर खेल गये। इस युद्ध में चित्तौड़ केशासक रावल रतनसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए उनकी रानी पधिनी ने वीरांगनाओं के साथ 'जोहर' कर सतीत्व की रक्षा की। सिसोदा का सरदार राणा सिंह भी अपने सात पुत्र सहित काम आ तथा किले पर खिलजी का अधिकार हो आया।


मेवाड़ के भाटों में प्रचलित कथा के अनुसार यह घटना इस प्रकार से बताई जाती है त के रावत रतनसिंह की रानी पद्मिनी बड़ी रूपवती थी। उसके सौन्दर्य की प्रशंसा गुन दिल्ली के ल अलाउद्दीन खिसी में से प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर चढ़ाई की कहा जाता है कि शक्ति से पद्मिनी को प्राप्त करने में असमर्थ या आपने रावत को यह संदेश भिजवाया कि यदि उसै पनि का मुख ही दिखा दिया जाय तो यह वापस दिल्ली लौटने को तैयार है। अतः शांति रखने के लिए राज रतनसिंह ने दर्पण में पचनी कामुँह दिखाना स्वीकार कर लिया जिस पर सुलतान अपने कुछ सैनियों सहित किले में आया और पश्चिमी के मुख का प्रतिबिंग देखकर सीट गया राजपूत लोग उसकी पहुंचाने के लिए किले के नीचे तक गये जहाँ सुलतान के संकेत पर रावल रतनसिंह को बन्दी बना लिया गया और यह काला भेजा कि रावत को तभी छोड़ा जायेगा जय पश्चिमी सुलतान के साथ चलने को राजी हो। इस समाचार ने सबको अचम्मे में डाल दिया किन्तु रानी पद्मिनी निराश नहीं हुई, उसने चतुराई से काम लिया। रानी ने एक ऐसी मुफ्ति सोधी जिससे रावल बन्चन मुक्त हो जाये और उसके अपने सतीत्य की रक्षा भी हो सके रानी पधिनी ने सुलतान से बहला भेजा कि यदि आप मेरी दासियों के लिए 700 पालकियों का प्रबन्ध कर दे, तो मैं उनके साथ आपके पास आने को तैयार हूँ सुलतान इस बात से राजी हो गया 700 पालकियों तैयार की गई। प्रत्येक पात में एक-एक बीर पोखा सशस्त्र बैठाया गया तथा 6-6 सशस्त्र चुने हुए वीर कहारों के भेष में एक-एक पालकी लेकर गोरा (पाचनी का चाचा) के नेतृत्व में सुलतान के खेमे में पहुंचे गोरा ने खिलजी को कहलवाया कि पचिनी अपने पति से अन्तिम मुलाकात करना चाहती है। सुलतान राजी हो गया जिस पर पालकियाँ रतनसिंह के खेमे में पहुंची। खेमे में 



पहुंचकर राजपूत वीरों ने रावल रतनसिंह को मुक्त फर किले की ओर रवाना किया तथा बाकी क्षत्रिय पीर युद्ध करने लगे। कुछ काल तक पुद्ध करने के बाद सुलतान को निराश ही दिल्ली लौटना पड़ा।


अलाउद्दीन खिलजी लौट तो गया किन्तु उसे चैन न पड़ा। वह फिर अपनी सेना को संगठित कर चित्तौड़ पर चढ़ आया। इस बार विजय खिलजी के हाथ लगी तथा पद्मिनी ने जौहर किया। यह वित्तौड़ का प्रथम शासक कहलाता है।


अमीर खुसरो ने, जो इस युद्ध में खिलजी के साथ था, अपनी तारीख-ए-अलाई में लिखा है। कि- "तारीख 28 जनवरी सन् 1303 को सुलतान अलाउद्दीन चित्तौड़ लेने के लिए दिल्ली से रवाना हुआ तथा तारीख 25 अगस्त का सन् 1303 को किला फतह हुआ तीस हजार हिन्दुओं को फल करने का हुक्मत देने के बाद सुलतान ने चित्तौड़ का राज्य अपने पुत्र खिजर खां को दिया और इस (चित्तौड़ का नाम खिजराबाद रखा।"


खिजर खां सन् 1311 ई. तक लगभग तक चित्तौड़ का शासक रहा परन्तु उससे वहां का प्रबन्धन हो सका और अन्त में सुलतान ने जालीर ने सरदार मालदेव सोनगरा (चौहान) को चित्तौड़ का किला सौंप दिया। कुछ समय पश्चात् राणा हमीर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर अपने पूर्वजों के गये हुए राज्य को पुनः प्राप्त किया।

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